5 जन॰ 2020

अमरता का अनुभव


मनुष्यमात्रके भीतर स्वाभाविक ही एक ज्ञान अर्थात्‌ विवेक है। साधकका काम उस विवेकको महत्त्व देना है। वह विवेक पैदा नहीं होता। अगर वह पैदा होता तो नष्ट भी हो जाता क्‍योंकि पैदा होनेवाली हरेक चीज नष्ट होनेवाली होती है-यह नियम है। अत: विवेककी उत्पत्ति नहीं होती, प्रत्युत जागृति होती है। जब साधक अपने भीतर उस स्वतःसिद्ध विवेकको महत्त्व देता है, तब वह विवेक जागृत हो जाता है। इसीको तत्त्वज्ञान अथवा बोध कहा जाता है।

मनुष्यमात्रके भीतर स्वत: यह भाव रहता है कि मैं बना रहूँ, कभी मरूँ नहीं। वह अमर रहना चाहता है। अमरताकी इस इच्छासे सिद्ध होता है कि वास्तवमें वह अमर है। अगर वह अमर न होता तो उसमें अमरताकी इच्छा भी नहीं होती। जैसे, भूख और प्यास लगती है तो इससे सिद्ध होता है कि ऐसी वस्तु (अन्न और जल) है, जिससे वह भूख-प्यास बुझ जाय। अगर अन्न-जल न होता तो भूख-प्यास भी नहीं लगती। अत: अमरता स्वतःसिद्ध है। यहाँ शंका होती है कि जो अमर है, उसमें अमरताकी इच्छा क्‍यों होती है? इसका समाधान है कि अमर होते हुए भी जब उसने अपने विवेकका तिरस्कार करके मरणधर्मा शरीरके साथ अपनेको एक मान लिया अर्थात्‌ 'शरीर ही मैं हूँ'-ऐसा मान लिया, तब उसमें अमरताकी इच्छा और मृत्युका भय पैदा हो गया।

मनुष्यमात्रको इस बातका विवेक है कि यह शरीर (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारणशरीर) मेरा असली स्वरूप नहीं है। शरीर प्रत्यक्ष रूपसे बदलता है। बाल्यावस्थामें जैसा शरीर था, वैसा आज नहीं है और आज जैसा शरीर है, वैसा आगे नहीं रहेगा। परन्तु मैं वही हूँ अर्थात्‌ बाल्यावस्थामें जो मैं था, वही मैं आज हूँ और आगे भी रहूँगा। अतः मैं शरीरसे अलग हूँ और शरीर मेरे से अलग है अर्थात्‌ मैं शरीर नहीं हूँ - यह सबके अनुभवकी बात है। फिर भी अपनेको शरीरसे अलग न मानकर शरीरके साथ एक मान लेना अपने विवेकका निरादर है, अपमान है, तिरस्कार है। साधकको अपने इस विवेकको महत्त्व देना है कि मैं तो निरन्तर रहनेवाला हूँ और शरीर मरनेवाला है। ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिसमें शरीर मरता न हो। मरनेके प्रवाहको ही जीना कहते हैं। वह प्रवाह प्रकट हो जाय तो उसको जन्मना कह देते हैं और अदृश्य हो जाय तो उसको मरना कह देते हैं। तात्पर्य है कि जो हरदम बदलता है, उसीका नाम जन्म है, उसीका नाम स्थिति है और उसीका नाम मृत्यु है। बाल्यावस्था मर जाती है तो युवावस्था पैदा हो जाती है और युवावस्था मर जाती है तो वृद्धावस्था पैदा हो जाती है। इस तरह प्रतिक्षण पैदा होने और मरनेको ही जीना (स्थिति) कहते हैं। पैदा होने और मरनेका यह क्रम सूक्ष्म रीतिसे निरन्तर चलता रहता है। परन्तु हम स्वयं निरन्तर ज्यों-के-त्यों रहते हैं। अवस्थाओंमें परिवर्तन होता है, पर हमारे स्वरूपमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। अत: शरीर तो निरन्तर मृत्युमें रहता है और मैं निरन्तर अमरतामें रहता हूँ-इस विवेकको महत्त्व देना है।

गीतामें आया है-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ (२ | २२)

'मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।'

जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़नेसे हम मर नहीं जाते और नये कपड़े धारण करनेसे हम पैदा नहीं हो जाते, ऐसे ही पुराने शरीरको छोड़नेसे हम मर नहीं जाते और नया शरीर धारण करनेसे हम पैदा नहीं हो जाते। तात्पर्य है कि शरीर मरता है, हम नहीं मरते। अगर हम मर जाएं तो फिर पुण्य-पापका फल कौन भोगेगा? अन्य योनियोंमें कौन जायगा? बन्धन किसका होगा? मुक्ति किसकी होगी?

शरीर नाशवान है, इसको कोई रख सकता ही नहीं और हमारा स्वरूप अविनाशी है, इसको कोई मार सकता ही नहीं-

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमहति॥ (गीता २ | १७)

अविनाशी सदा अविनाशी ही रहेगा और विनाशी सदा विनाशी ही रहेगा। जो विनाशी है, वह हमारा स्वरूप नहीं है। हमने कुर्ता पहन लिया तो क्या कुर्ता हमारा स्वरूप हो गया? हमने चादर ओढ़ ली तो क्या चादर हमारा स्वरूप हो गयी? जैसे हम कपड़ोंसे अलग हैं, ऐसे ही हम इन शरीरोंसे भी अलग हैं। इसलिये हमारे मनमें निरन्तर स्वतः यह बात रहनी चाहिये कि मैं मरनेवाला नहीं हूँ, मैं तो अमर हूँ। 'अमर जीव मरे सो काया' जीव अमर है, काया मरती है। अगर इस विवेकको महत्त्व दें तो मरनेका भय मिट जायगा। जब हम मरते ही नहीं तो फिर मरनेका भय कैसा? और जो मरता ही है, उसको रखनेकी इच्छा कैसी? हमारा बालकपना नहीं रहा तो अब हम बालकपनेको लाकर नहीं दिखा सकते; क्योंकि वह मर गया, पर हम वही रहे। अत: शरीर सदा मरनेवाला है और मैं सदा अमर रहनेवाला हूँ-इसमें क्या सन्देह रहा? अब केवल इस बातका आदर करना है, इसको महत्त्व देना है, इसका स्वयं अनुभव करना है, कोरा सीखना नहीं है। जैसे धन मिल जाय तो भीतरसे खुशी आती है, ऐसे ही इस बातको सुनकर भीतरसे खुशी आनी चाहिये और जीनेकी इच्छा तथा मरनेका भय नहीं रहना चाहिये! कारण कि जिस बातसे हमारा दुःख, जलन, संताप, रोना मिट जाय, उसके मिलनेसे बढ़कर और क्या खुशीकी बात होगी? ऐसा लाभ तो करोड़ों-अरबों रुपयोंके मिलनेसे भी नहीं होता। कारण कि अरबों-खरबों रुपये मिल जाये और पृथ्वी का राज्य मिल जाय तो भी एक दिन वह सब छूट जायगा, हमारेसे बिछुड़ जायगा!

अरब खरब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज।
तुलसी जो निज मरन है, तो आवे किहि काज॥

हम शरीरमें अपनी स्थिति मान लेते हैं, अपनेको शरीर मान लेते हैं तो यह हमारी गलती है। गलत बातका आदर करना और सही बातका निरादर करना ही मुक्तिमें खास बाधा है। अपनेको शरीर मानकर ही हम कहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ। वास्तवमें हम न बालक हुए, न हम जवान हुए, न हम बूढ़े हुए, प्रत्युत शरीर ही बालक हुआ, शरीर ही जवान हुआ, शरीर ही बूढ़ा हुआ। शरीर बीमार हो गया तो मैं बीमार हो गया, शरीर कमजोर हो गया तो मैं कमजोर हो गया, धन पासमें आ गया तो मैं धनी हो गया, धन चला गया तो में निर्धन हो गया-यह शरीर और धनके साथ एकता माननेसे ही होता है। जब क्रोध आता है, तब हम कहते हैं कि मैं क्रोधी हूँ! विचार करें, क्या क्रोध सब समय रहता है? सबके लिये होता है? जो हरदम नहीं रहता और जो सबके लिये नहीं होता, वह मेरेमें कैसे हुआ? कुत्ता घरमें आ गया तो क्‍या वह घरका मालिक हो गया? ऐसे ही क्रोध आ गया तो क्या मैं क्रोधी हो गया? क्रोध तो आता है और चला जाता है, पर मैं निरन्तर रहता हूँ।

देश बदलता है, काल बदलता है, वस्तुएँ बदलती हैं, व्यक्ति बदलते हैं, क्रिया बदलती है, अवस्था बदलती है, परिस्थिति बदलती है, घटना बदलती है, पर हम निरन्तर रहते हैं। जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों अवस्थाएँ बदलती हैं, पर हम तो एक ही रहते हैं, तभी हमें अवस्थाओंका और उनके परिवर्तनका अर्थात्‌ उनके आरम्भ और अन्तका ज्ञान होता है। स्थूल दृष्टिसे विचार करें तो जैसे हम हरिद्वारसे ऋषिकेश आये तो पहले हम हरिद्वारसे रायवाला आये, फिर रायवालासे ऋषिकेश आये। अगर हम हरिद्वारमें ही रहनेवाले होते तो रायवाला और ऋषिकेश कैसे आते? रायवालामें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और ऋषिकेश कैसे आते? ऋषिकेशमें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और रायवाला कैसे आते? अत: हम न तो हरिद्वारमें रहते हैं, न रायबालामें रहते हैं, न ऋषिकेशमें रहते हैं। हरिद्वार, रायवाला और ऋषिकेश-तीनों अलग-अलग हैं, पर हम एक ही हैं। हरिद्वारमें भी हम वही रहे, रायवालामें भी हम वही रहे और ऋषिकेशमें भी हम वही रहे | ऐसे ही जाग्रत्‌में भी हम वही रहे, स्वप्रमें भी हम वही रहे और सुषुप्तिमें भी हम वही रहे। अतः बदलनेवालेकों न देखकर रहनेवालेको देखना है अर्थात्‌ अपनेमें निर्लिप्तता का अनुभव करना है-

'रहता रूप सही कर राखो बहता संग न बहीजे'

बदलनेवालेके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है-यही अमरता (मुक्ति) है। अमरता स्वतःसिद्ध और स्वाभाविक है, करनी नहीं पड़ती। मृत्युके साथ सम्बन्ध तो हमने माना है।

प्रश्न: अभी सिंह सामने आ जाय तो भय लगेगा ही?
उत्तर: भय इस कारण लगेगा कि 'मैं शरीरसे अलग हूँ'-यह बात सुनकर सीख ली है, समझी नहीं है। सीखी हुई और समझी हुई बातमें यही फर्क है। तोता अन्य समय तो राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करता है, पर जब बिल्ली पकड़ती है, तब टें-टें करता है, जबकि समय तो अब राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करनेका है! परन्तु सीखा हुआ ज्ञान समयपर काम नहीं आता।

सिंह आ जाय तो उससे बचनेकी चेष्टा करनेमें कोई दोष नहीं है, पर भयभीत होना दोषी है। कारण कि मरनेवाला तो मर ही रहा है और जीनेवाला जी ही रहा है, फिर भय किस बातका? सिंह मारेगा तो मरनेवालेको ही मारेगा, जीनेवालेको कैसे मारेगा? सिंह खा लेगा तो उसको भूख मिट जायगी, अपनेमें क्‍या फर्क पड़ेगा? मरनेवालेको कबतक बचाओगे? वह तो मरेगा ही। अतः न जीनेकी इच्छा करनी है, न मरनेका भय करना है।

एक मार्मिक बात है। सत्संग करनेसे पहले जितना भय लगता है, उतना भय सत्संगके बाद नहीं लगता। सत्संग करनेसे वृत्तियोंमें बहुत फर्क पड़ता है और विकार अपने-आप नष्ट होते हैं। परन्तु ऐसा तब होगा, जब हम सत्संगकी बातोंको आदर देंगे, महत्त्व देंगे, उनका अनुभव करेंगे। सत्संगकी बातोंको महत्त्व देनेसे साधकके अनुभवमें ये तीन बातें अवश्य आती हैं-

(१) काम-क्रोधादि विकार पहले जितनी तेजीसे आते थे, उतनी तेजीसे अब नहीं आते।
(२) पहले जितनी देर ठहरते थे, उतनी देर अब नहीं उहरते।
(३) पहले जितनी जल्दी आते थे, उतनी जल्दी अब नहीं आते।

-इन बातोंको देखकर साधकका उत्साह बढ़ना चाहिये कि जो विकार कम होता है, वह नष्ट भी अवश्य होता है। व्यापारमें तो लाभ और नुकसान दोनों होते हैं, पर सत्संगमें लाभ-ही-लाभ होता है, नुकसान होता ही नहीं। जैसे माँकी गोदीमें पड़ा हुआ बालक अपने-आप बड़ा होता है, बड़ा होनेके लिये उसको उद्योग नहीं करना पड़ता। ऐसे ही सत्संगमें पड़े रहनेसे मनुष्यका अपने-आप विकास होता है। अगर जिज्ञासा जोरदार हो और थोड़ा भी विकार असह्य हो तो तत्काल सिद्धि होती है।

सत्संगसे विवेक जागृत होता है। साधक जितने अंशमें उस विवेकको महत्त्व देता है, उतने अंशमें उसके काम-क्रोधादि विकार कम हो जाते हैं। विवेकको सर्वथा महत्त्व देनेसे वह विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है, फिर दूसरी सत्ताका अभाव होनेसे विकार रहनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान होनेपर विकारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है।

किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाय, धन चला जाय तो मनुष्यको शोक होता है। ऐसे ही भविष्यको लेकर चिन्ता होती है कि अगर स्त्री मर गयी तो क्या होगा? पुत्र मर गया तो क्या होगा? ये शोक-चिन्ता भी विवेकको महत्त्व न देनेके कारण ही होते हैं। संसारमें परिवर्तन होना, परिस्थिति बदलना आवश्यक है। यदि परिस्थिति नहीं बदलेंगी तो संसार कैसे चलेगा? मनुष्य बालकसे जवान कैसे बनेगा? मूर्खसे विद्वान्‌ कैसे बनेगा? रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा? बीजका वृक्ष कैसे बनेगा? परिवर्तनके बिना संसार स्थिर चित्रकी तरह बन जायगा ! वास्तवमें मरनेवाला (परिवर्तनशील) ही मरता है, रहनेवाला कभी मरता ही नहीं। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि मृत्यु होने पर शरीर तो हमारे सामने पड़ा रहता है, पर शरीरका मालिक (जीवात्मा) निकल जाता है। यदि इस अनुभवको महत्त्व दें तो फिर चिन्ता-शोक हो ही नहीं सकते। बालि के मरनेपर भगवान्‌ राम इसी अनुभवकी ओर ताराका लक्ष्य कराते हैं-

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥
प्रगट सो तनु तब आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर माँगी॥ (मानस, किष्किन्धा० ११ | २-३)

प्रश्न: विवेकका आदर न होनेमें खास कारण क्‍या है?
उत्तर: खास कारण है--संयोगजन्य सुखकी आसक्ति। हम संयोगजन्य सुखका भोग करना चाहते हैं, इसीलिये अपने विवेकका आदर नहीं होता अर्थात्‌ ज्ञान भीतर ठहरता नहीं। तात्पर्य है कि भोगोंमें जितनी आसक्ति होती है, उतनी ही बुद्धि में जडता आती है, जिससे सत्संगकी तात्त्विक बातें पढ़-सुनकर भी समझमें नहीं आतीं। गीतामें आया है कि भोग और संग्रहमें आसक्त मनुष्य परमात्माकी प्राप्तिका निश्चय भी नहीं कर सकते। भोगोंकी आसक्तिसे उनका ज्ञान ढका जाता है। इसलिये जबतक वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, चिन्तन, स्थिरता (समाधि) आदिमें किंचिन्मात्र भी राग है, तबतक ज्ञान सीखा हुआ ही है-'रागो लिङ्गमबोधस्य।

प्रश्न: शरीर मैं नहीं हूँ-यह तो ठीक है, पर शरीर मेरा और मेरे लिये तो है ही?
उत्तर: शरीरके साथ हम तीन तरहके सम्बन्ध मानते हैं-(१) शरीर मैं हूँ, (२) शरीर मेरा है और (३) शरीर मेरे लिये है। ये तीनों ही सम्बन्ध बनावटी हैं, वास्तविक नहीं हैं। वास्तवमें शरीर 'मैं' भी नहीं है, 'मेरा' भी नहीं है और 'मेरे लिये' भी नहीं है। कारण कि अगर शरीर 'मैं' होता तो शरीरके बदलनेपर मैं भी बदल जाता और शरीरके मरनेपर मेरा भी अभाव हो जाता। परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीर पहले जैसा था, वैसा आज नहीं है, पर मैं वही हूँ। शरीर बदला है, पर मैं नहीं बदला। अगर शरीर 'मेरा' होता तो उसपर मेरा पूरा अधिकार चलता अर्थात्‌ मैं जैसा चाहता, वैसा ही शरीरको रख सकता, उसको सुन्दर बना देता, उसका रंग बदल देता, उसको बदलने नहीं देता, बीमार नहीं होने देता, कमजोर नहीं होने देता, बूढ़ा नहीं होने देता और कम-से-कम मरने तो देता ही नहीं। परन्तु  यह सबका अनुभव है कि शरीरपर हमारा बिलकुल वश नहीं चलता और न चाहते हुए भी, लाख कोशिश करते हुए भी वह बीमार हो जाता है, कमजोर हो जाता है, वृद्ध हो जाता है और मर भी जाता है। अगर शरीर 'मेरे लिये' होता तो उसके मिलनेपर हमें संतोष हो जाता, हमारे भीतर और कुछ पानेकी इच्छा नहीं रहती और शरीरसे कभी वियोग भी नहीं होता, वह सदा मेरे साथ ही रहता। परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीर मिलनेपर भी हमें किंचिन्मात्र संतोष नहीं होता, हमारी इच्छाएँ समाप्त नहीं होतीं, हमें पूर्णताका अनुभव नहीं होता और शरीर भी निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत हमारेसे बिछुड़ जाता है। जैसे स्थूल, सूक्ष्म और कारण-तीनों शरीरोंके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे ही स्थूलशरीरसे होनेवाली 'क्रिया', सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला 'चिन्तन' और कारणशरीरसे होनेवाली 'स्थिरता' (समाधि) के साथ भी हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। कारण यह है कि प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और समाप्ति होती है। कोई भी चिन्तन निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत आता-जाता रहता है। स्थिरताके बाद चञ्जलता, समाधिके बाद व्युत्थान होता ही है। तात्पर्य है कि न तो क्रिया निरन्तर रहती है, न चिन्तन निरन्तर रहता है और न स्थिरता निरन्तर रहती है। इन तीनों के आने-जानेका, परिवर्तनका अनुभव तो हम सबको होता है, पर अपने परिवर्तनका अनुभव कभी किसीको नहीं होता। हमारा होनापन निरन्तर रहता है। हमारे साथ न तो पदार्थ एवं क्रिया रहती है, न चिन्तन रहता है और न स्थिरता ही रहती है। हम अकेले ही रहते हैं। इसलिये हमें अकेले (पदार्थ, क्रिया, चिन्तन और स्थिरतासे रहित) रहनेका स्वभाव बनाना चाहिये।

जब स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर तथा उनके कार्य क्रिया, चिन्तन और स्थिरताके साथ हमारा सम्बन्ध ही नहीं तो फिर उनका संयोग हो अथवा वियोग हो, हमारेमें क्या 'फर्क पड़ता है? ऐसा ही अनुभव गुणातीतको भी होता है-

प्रकाशं च॒ प्रवृत्तिं च मोहमेव चर पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥ (गीता १४ | २२)

'हे पाण्डव! प्रकाश, प्रवृत्ति तथा मोह-ये सभी अच्छी तरहसे प्रवृत्त हो जायेँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जायें तो इनकी इच्छा नहीं करता।'

संयोग-वियोग तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है। तत्त्वमें न संयोग है, न वियोग है, प्रत्युत नित्य-'योग' है-'तं विद्याद्‌ दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्‌” (गीता ६ । २३)

जबतक हमारा सम्बन्ध पदार्थ, क्रिया, चिन्तन, स्थिरताके साथ रहता है, तबतक परतन्त्रता रहती है; क्योंकि पदार्थ, क्रिया आदि 'पर' हैं, 'स्व' नहीं हैं। इनसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर हम स्वतन्त्र (मुक्त) हो जाते हैं। वास्तवमें हमारा स्वरूप (होनापन) स्वतन्त्रता-परतन्त्रता दोनोंसे रहित है; क्योंकि स्वतन्त्रता-परतन्त्रता तो सापेक्ष हैं, पर स्वरूप निरपेक्ष है।

भगवानूने कहा है--
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। (गीता २ । १६)

'असत्‌का भाव विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है।'

शरीर, पदार्थ, क्रिया, अवस्था आदि असत्‌ हैं; अत: उनका भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है अर्थात्‌ उनका निरन्तर अभाव है। स्वरूप सत्‌ है; अत: उसका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात्‌ उसका निरन्तर भाव (सत्ता) है। असत्‌के साथ अपने सम्बन्धको न माननेसे अभावरूप असतका अभाव हो जाता है और भावरूप सत्‌ ज्यों-का-त्यों रह जाता है और उसका अनुभव हो जाता है।

ज्ञानमार्गमें असत से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और अपने स्वरूप (चिन्मय सत्तामात्र) में स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। फिर स्वरूप जिसका अंश है, उस परमात्माकी ओर स्वत: आकर्षण होता है, जिसको प्रेम कहते हैं। अपना स्वरूप सभीको प्रिय लगता है, फिर वह जिसका अंश है, वे परमात्मा कितने प्रिय लगेंगे-इसका कोई पारावार नहीं है!

- श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदासजी

8 अग॰ 2018

सुसाइड जैसे ख्यालों से उबरकर सफल होने की कहानी

मिलिए प्रशांत लिंगम से। उनकी कहानी एक ऐसी प्रेरणादायक कहानी है जिसे हर उस आदमी को सुनना चाहिए जो समझते हैं कि उनके साथ सिर्फ बुरा ही होता चला आया है और ज़िंदगी उन्हें कभी अच्छे दिन नहीं दिखाने वाली। प्रशांत लिंगम आज सफल व्यवसायी हैं जिनका स्टार्टअप आज एक करोड़ का टर्नओवर पार कर चुका है लेकिन उन्होंने कभी ऐसे भी दिन देखे जब उनपर 60 लाख का कर्ज़ा हो चुका था।



हममें से हर कोई किसी ना किसी सपने के साथ बड़ा होता है लेकिन दुनिया की भेड़चाल में चलना सबकी मज़बूरी बन जाता है लेकिन कुछ बिरले ही होते हैं जो लीक से हटकर अपने सपने को साकार करने की ठान लेते हैं और तब तक रुकने का नाम नहीं लेते जब तक की सफलता उन्हें मिल नहीं जाती।

ऐसा ही कुछ प्रशांत ने भी सोचा। उनका बिज़नेस आईडिया था बांसों का उपयोग कर घर बनाने का। यह विचार उनके मन में घर कर गया और वे निकल पड़े इस बिज़नेस को सफल बनाने में। लेकिन यह उनके लिए इतना आसान नहीं था।

वे बताते हैं कि आर्थिक रूप से उन्हें इतनी तंगी का सामना करना पड़ा कि जो भी कुछ 10-20 रूपए होते थे उसमें वो पत्नि-बच्चे सहित दिन में एक बार ही खाना खा पाते थे लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। पत्नि की बीमारी के चलते उनपर 60 लाख का क़र्ज़ हो गया। दिमाग में आत्महत्या जैसे ख्याल आने लगे लगे लेकिन उन्होंने जीवन में सकारात्मकता बनाए रखी और जो सामने था उसे ईमानदारी से निभाते चले गए। अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने मेहनत करना कभी नहीं छोड़ा।

उनकी मेहनत रंग लायी और आज उनका स्टार्टअप एक सफल बिज़नेस मॉडल बन चुका है। उनके द्वारा बनाये जाने वाले बांस के घर की मांग ना सिर्फ में भारत से बल्कि दुनिया के अन्य देशों से भी आने लगी है।





किसी के गार्डन के लिए ये एक लग्ज़री हैं तो किसी और के लिए यह काम कीमत में आवास उपलब्ध करा रहे हैं।

उनका यह आईडिया पर्यावरण के लिए भी अच्छा है साथ ही साथ इससे बांस की खेती और कलाकारी करने वाले श्रमिकों को भी अच्छा जीवनस्तर मुहैया कराने का साधन बन गया है। बांस दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली प्रजातियों में से एक है। बांस की कुछ नस्लें तो एक दिन में तीन फ़ीट तक बढ़ सकती हैं।

उनका आईडिया यूनिक था। उन्हें इसकी बेहतर और लाभदायक होने पर विश्वास था। उन्होंने इसे अपने कल्पना की दुनिया से उतारकर वास्तविक दुनिया में साकार कर डाला। जीवन के इस उतर-चढ़ाव को भी बखूबी उन्होंने सम्हाला। वे कहते हैं कोशिश करते रहें, यदि एक बार हार भी जाते हैं तो यह पछताने से लाख गुना बेहतर है।

3 जुल॰ 2018

आम के औषधीय गुण व विभिन्न रोगों में आम के प्रयोग



आम फलों का राजा है ये तो हम सब जानते हैं लेकिन इस आम नाम वाले फल के गुण जानकार फिर आप इसे कभी दोबारा आम नहीं समझेंगे। तो आइए जानते हैं आम के औषधीय गुणों के बारे में-

१) पका हुआ मीठा आम शक्तिवर्धक, ठंडा और हृदय को बल प्रदान करने वाला होता है. इसके सेवन से त्वचा सुन्दर साफ़ व चमकदार होती है.

२) पका हुआ मीठा आम जहाँ पित्त को बढ़ाने वाला होता है तो वहीं कच्चा आम पित्त का नाश करने वाला होता है. कच्चे आम के सेवन से भूख बढ़ती है, इससे पाचनशक्ति में इजाफा होता है तथा कब्ज़ दूर होती है.

३) सूखी खांसी को मिटाने के लिए पके हुए आम को गर्म राख में भूनकर खाना चाहिए।

४) अनिद्रा अर्थात नींद ना आने की समस्या में दूध के साथ पके हुए आम का सेवन करना चाहिए।

५) आम के रस में सेंधा नमक और चीनी मिलाकर पीने से भूख बढ़ती है.

६) खून की कमी वाले रोगी को सुबह-शाम एक कप आम के रस में एक चम्मच शहद मिलाकर पीना चाहिए।

७) सर दर्द, दिमाग की कमज़ोरी, आँखों के आगे अँधेरा छा जाने जैसी समस्या में २५० मिली पके हुए मीठे आम के रस में ५० मिली गाय का दूध और एक चम्मच अदरक का रस मिलाकर कांसे की थाली में अच्छी तरह से फेंट लें और जब यह लस्सी जैसा गाढ़ा हो जाये तो इसका सेवन करें। इस प्रयोग से गुर्दे से जुड़ी समस्याओं से भी निजात मिलती है.

८) आम के पत्तों को उबालकर उस पानी से कुल्ला करने से मुंह की दुर्गन्ध से छुटकारा मिलता है तथा मसूड़े मजबूत होते हैं. आम की गुठली के अंदर से निकलने वाली गिरी को पीसकर उसका मंजन बना कर रख लें. इस मंजन के सेवन से दांतों व मसूड़ों के कई रोगों में आराम मिलता है.

९) यदि बच्चों में मिट्टी खाने की आदत है तो उपरोक्त आम की गिरी के चूर्ण को पानी में मिलाकर बच्चे को २-३ बार नित्य पिलाना चाहिए। इससे पेट के कीड़े भी मर जाते हैं.

१०) आम की गिरी का रस नाक से खून आने की समस्या में बेहद कारगर है. मरीज़ की नाक में १-१ बून्द इस रस में टपकाने से उसे तुरंत आराम मिलता है.

११) मकड़ी के काट लेने पर अथवा शरीर पर मसल जाने पर कच्चे आम के अमचूर को पानी में मिलाकर लगाने से ज़हर का असर नष्ट हो जाता है.

१२) बवासीर एवं रक्तस्राव में आम की गुठली की गिरी का चूर्ण दिन में दो से तीन बार प्रयोग करें।

१३) शरीर के किसी अंग के जल जाने पर आम के पत्तों को जलाकर इसकी राख को अंग पर लगाने से जला हुआ अंग ठीक हो जाता है.


१४) मधुमेह के रोगियों को आम के पत्तों को छांव में सुखाकर उसका चूर्ण बना कर रख लेना चाहिए तथा नित्य इसका २-३ चम्मच सेवन करना चाहिए।

१५) शरीर के सभी अंगों को बल और पोषण करने के लिए आम की चाय का सेवन करना चाहिए। इस चाय को बनाने के लिए आम के १० पत्ते जो पेड़ पर लगे हुए ही पककर पीले हो गए हों उन्हें १ लीटर पानी में थोड़ी इलायची के दाने डालकर उबाल लें और इस पानी के आधा रह जाने पर इसमें दूध और शक्कर डालकर इसका सेवन करें। नित्य इसका सेवन करने से शरीर की कमज़ोरी दूर होती है और पाचन शक्ति में इजाफा होता है.

१६) टीबी के रोग में मरीज़ को एक कप आम के रस में ६० ग्राम शहद मिलाकर दें एवं दिन में तीन बार गाय के दूध का सेवन करायें। इस प्रयोग से १ महीने में ही टीबी के रोग में आराम मिलता है.

१७) एक वर्ष पुराने आम के अचार का तेल सर पर लगाने से बालों की लम्बाई बढ़ती है तथा शुरुआती गंजेपन में लाभ होता है.

१८) हिचकी आने पर आम के गिरे हुए पत्तों को जलाकर उसके धुंए के सेवन से हिचकी आना बंद हो जाती है.

१९) कब्ज़ के रोगी यदि पके हुए मीठे आम के साथ दूध का सेवन करें तो शौच खुलकर आती है.

२०) गठिया के रोग १०० ग्राम आम की गुठलियों को कुचलकर २५० मिली सरसों का तेल में मिलाकर पका लें. इस तेल की मालिश करने से रोगी का दर्द कम होकर रोग में आराम मिलता है.

20 जून 2018

आंखों की पलकों के फड़कने का प्राकृतिक उपचार

Home Remedies For Eye Twitching


कभी-कभी अपने आप हमारी आंखें फड़कने लगती हैं। वैसे तो यह अपने आप में कोई रोग नहीं। कभी-कभी ये होना आम बात है एवं इसके शकुन और अपशकुन का भी विचार किया जाता हैं परन्तु यदि यह सामान्य से अधिक लम्बे समय से आप इस समस्या से ग्रस्त हैं तो इन उपचारों द्वारा इस समस्या से निजात पाया जा सकता है।

1) १० ग्राम गाय का घी और ४० मिली दूध लेकर उबालें और गुनगुना हो जाने पर इस दूध के साथ ५ ग्राम मिश्री एवं अश्वगंधा नागौरी के चूर्ण का सेवन करें। इस प्रकार से दिन में यदि यह प्रयोग सुबह और शाम को किया जाए तो आँखों का फड़कना बंद हो जाता है।

२) महारास्नादि काढ़े में सौंठ मिलाकर पीने से शरीर के किसी भी अंग के फड़कने की समस्या में आराम मिलता है।

३) त्रिफला के पानी से आँखों को सुबह शाम धोने से आँखों की फड़कने की समस्या में आराम मिलता है।

४) पथरचटा के पत्तों को पीसकर आँखों पर लेप करने से आँखों का फड़कना बंद हो जाता है। पथरचटा आँखों के अन्य रोगों में भी अतिलाभकारी है।

ये सभी उपाय अनुभूत और कारगर हैं। उपरोक्त उपायों के प्रयोग से आप घर पर ही आँखों के फड़कने की समस्या का उपचार कर सकते हैं। इसके अलावा पर्याप्त पानी पियें और कॉफ़ी का सेवन कम से कम करें। पर्याप्त मात्रा में नींद ना लेना भी इस आँखों के फड़कने का कारण बनता है इसलिए कम से कम ६-८ घंटे की नींद अवश्य लें।

6 जून 2018

5 काम जो फेसबुक पर कभी ना करें



फेसबुक अपने लोगों और दोस्तों से कनेक्ट रहने का अच्छा माध्यम है लेकिन इसके उपयोग में आपको कुछ सावधानियाँ भी बरतनी चाहिए क्योंकि आखिर हर तकनीकी के एक अच्छे पहलू के साथ उससे जुड़ा एक हानिकारक पहलू भी होता है जिसे ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है.

• अपनी फ्रेंडलिस्ट में जाकर देखें कि कितने लोगों को आप जानते हैं और उनपे आप भरोसा करते हैं. कई लोग अपने फोटो और पोस्ट पर ज़्यादा लाइक के लिए बहुत सारे दोस्तों को ऐड कर लेते हैं लेकिन इस क्रम में अनजाने लोगों को भी ऐड कर लिया जाता है जोकि आपकी सभी जानकारियों को देख सकता है. कई जानकारी हम सिर्फ अपने दोस्तों के साथ ही साझा करना पसंद करते हैं तो ऐसे में अजनबी को वो जानकारी दिखाने का औचित्य?

इसके अलावा हो सकता है कि किसी ने नकली आईडी बनाकर आपको request भेजी हो जिसे आप पसंद ना करते हों या फिर उसकी असली आईडी को आपने ब्लॉक कर रखा हो.

अजनबियों को ऐड करके आप किसी अपराध का शिकार भी बन सकते हैं. अपराधी भी जालसाजी, ब्लैकमेलिंग, लूट, चोरी आदि अपराधों के लिए डिजिटल टेक्नोलॉजी का उपयोग करते हैं. आपके फेसबुक डाटा से आपकी दिनचर्या के बारे में पता करना आसान होता है इसलिए किसी भी अजनबी को अपनी फ्रेंडलिस्ट में जगह ना दें.

• यदि आपने अपना बर्थडे पब्लिक कर रखा है तो उसकी privacy setting दोस्तों तक ही सीमित रखें।

• अपने बच्चों की डीटेल्स जैसे उनका स्कूल और फोटोग्राफ्स आदि कभी भी फेसबुक पर ना डालें। यह उनके लिए कभी भी गंभीर खतरा बन सकता है.

• अपना फोन नंबर भी फेसबुक पर ऐड करना कोई ज़रूरी नहीं है. ना ही इसका कोई फायदा आपको होता है. पासवर्ड भूल जाने पर आप अपने ईमेल से अपना अकाउंट एक्सेस कर सकते हैं या फिर आप तीन ऐसे दोस्तों को सेटिंग में सेव कर सकते हैं जो पासवर्ड भूलने पर आपको लॉगिन करवा सकते हैं.

अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पे जाएं https://www.facebook.com/help/119897751441086

• अपनी लोकेशन सर्विस को भी ऑफ करके रखें। नेविगेशन के लिए आपको कोई सोशल मीडिया ऍप्स यूज़ करने की कोई ज़रूरत नहीं है. आप गूगल मैप जैसी सर्विसेज का उपयोग कर सकते हैं.

• अपने ऑफिस के कर्मचारियों खासकर से अपने सीनियर कर्मचारियों को फेसबुक पर ऐड करना भी आपके कम्फर्ट को कम कर सकता है इसलिए उन्हें ऐड करने से पहले आप अपने और उनके व्यावसायिक और पर्सनल सम्बन्ध पर गौर कर लें.

• अपना क्रेडिट या डेबिट कार्ड कभी भी सेव करके ना रखें। इसके लिए आप वर्चुअल कार्ड generate कर सकते हैं. अपनी नेट बैंकिंग जाके में हमेशा अपने किसी भी transaction के लिए OTP अनिवार्य करके रखें। इससे आपके कार्ड से online किसी भी खरीद के लिए आपको पहले आपके मोबाइल पर SMS के ज़रिये एक OTP आएगा उसे डाले बगैर transaction पूरा नहीं होगा।


6 अप्रैल 2018

आँख आने का घरेलू रामबाण इलाज



Conjunctivitis या आँख आना एक ऐसा रोग है जीवन में एक न एक बार सबको होता है. इस रोग में मरीज़ को बहुत कष्ट होता है. आंखें लाल हो जाती हैं और आँखों से गाढ़ा चिपचिपा तरल पदार्थ निकलता रहता है. रात को सोते समय आँखों में कीचड़ आने से से सुबह मरीज़ को आँख खोलने में बहुत परेशानी का सामना करना होता है.

यह एक संक्रामक रोग होता है इसलिए परिवार के किसी सदस्य को आँख आने पर उसके तौलिये-कपड़े इत्यादि किसी अन्य व्यक्ति को उपयोग नहीं करना चाहिए एवं मरीज़ को धूप-धूल व धुंए इत्यादि से बचाकर रखना चाहिए।

घरेलू सामग्री से आँख आने का उपचार

जायफल

इस रोग में मरीज़ की आँखों में सुबह-शाम जायफल दूध में मिलाकर लगाने से यह रोग बहुत जल्द ठीक होता है.

शहद

एक चम्मच शहद में बारीक पिसा हुआ नमक मिलाकर लगाकर मरीज़ की आँखों में लगाने से लाभ होता है.

मुलैठी

मुलहठी को रात भर पानी में भिगोकर रखें एवं सुबह मरीज़ की आँखों को इस पानी को हल्का गुनगुना गर्म कर साफ़ रुई की मदद से धोएं तो बहुत जल्द ही मरीज़ को आराम मिलता है.

गुलाबजल

दिन में दो बार आँख आने पर रोगी की आँखों को गुलाबजल से साफ़ करने से रोग में आराम मिलता है और मरीज़ को होने वाले दर्द और चुभन में कमी आती है.

नीम

इस रोग में मरीज़ की आँखों को नीम के पानी से धोने से आँखों की सूजन व लाल होने में आराम मिलता है.

4 अप्रैल 2018

मोतियाबिंद का रामबाण इलाज


मोतियाबिंद आँखों का एक ऐसा रोग है जिसके कारण सबसे ज़्यादा लोग अपनी आँखों की रोशनी खो देते हैं। सामान्यतया यह रोग 60 की आयु पार कर लेने के बाद होता है लेकिन आजकल यह कम उम्र के लोगों में भी देखा जाने लगा है।

इस रोग के कारण आँखों का लेंस धीमे-धीमे अपनी पारदर्शिता खोने लगता है एवं जब लेंस के धुंधले हो जाने के कारण देखने में परेशानी होने लगती है तो इस स्थिति को मोतियाबिंद कहा जाता है।

अंगेज़ी दवा पद्धति में इसका उपचार शल्य क्रिया ही है। मोतियाबिंद का ऑपरेशन हालांकि एक सरल और सुरक्षित ऑपरेशन है फिर भी आयुर्वेद में वर्णित दवाओं से भी मोतियाबिंद से छुटकारा पाया जा सकता है। आइये जानते हैं कि घरेलू उपचार के द्वारा आप मोतियाबिंद से कैसे निजात पा सकते हैं-

उपचार

शहद

स्वस्थ आँखों में शहद की एक बून्द प्रतिदिन डालने से कभी मोतियाबिंद नहीं होता इसलिए इस रोग से बचने के लिए हमेशा आँखों में शहद डालने की आदत बनाएं।

जिनको मोतियाबिंद हो चुका है वे 50 मिली छोटी मधुमक्खी के शहद के साथ सफ़ेद प्याज़ का रस 10 मिली अदरक का रस 10 मिली और नीम्बू का रस 10 मिली मिलाकर इसे छानकर रख लें। इस मिश्रण की नित्य 2-2 बून्द आंखों में डालने से मोतियाबिंद नष्ट हो जाता है।

बादाम

रात को भिगोकर रखी गयीं 4-5 बादाम के साथ रोज़ सुबह 4-5 काली मिर्च थोड़ी सी मिश्री के साथ चबाकर खाने के बाद दूध के सेवन से मोतियाबिंद नष्ट हो जाता है।

स्वमूत्र

शुरुआती मोतियाबिंद में स्वमूत्र (स्वयं की पेशाब) का सेवन चमत्कारिक परिणाम देता है। स्वमूत्र को तुरंत उपयोग में नहीं लेना चाहिए। इसे भरकर 15-20 मिनट ढककर रख दें और ठंडा होने पर इससे आँखों को धोयें अथवा कुछ बून्द आँखों में डालें। इसके नित्य प्रयोग से 2-3 महीनों में ही मोतियाबिंद से छुटकारा मिल जाता है।

त्रिफला

10 ग्राम त्रिफला दिन में तीन बार एक छोटी चम्मच घी के साथ लेने से मोतियाबिंद में लाभ होता है।

सेंधा नमक

1 ग्राम सेंधा नमक और 5 ग्राम सतगिलोय को पीसकर रख लें तथा रोज़ सुबह-शाम इस चूर्ण को शहद मिलाकर आँखों में लगाने से जल्द मोतियाबिंद ठीक होता है।